Monday, March 17, 2014

वाह री दुनिया वाह
ये कैसी तेरी चाह

पिंजरों में बंद हैं सपने
हर कलरव में हैं आह..
पंछियों  के स्वतंत्र स्वरों को
बाँधने की कैसी चाह

वाह री दुनिया वाह
ये कैसी तेरी चाह

कुदरत बिन माँगे हैं देती
क्यों काटे इसकी बाह...
अपने ही अरथी को ढोए
तू चला कौनसी राह

वाह री दुनिया वाह
ये कैसी तेरी चाह

अपनों में तू खुद को भूला
धूप में बना ठंडी छाह...
मुश्किल में तू जो पुकारे
कौन थामेगा तेरी बाह

वाह री दुनिया वाह
ये कैसी तेरी चाह

प्रेम वचन सब हुए पुराने
गुजर चुके वो दिन माह...
मैं बस मेरी करनी जानू
सुकर्म तेरे सब स्वाह

वाह री दुनिया वाह
ये कैसी तेरी चाह


"आशीष मौर्य"